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वे जन्म दे रही हैं हर क्षण एक नयी पृथ्वी : मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है पर अरुण होता की समीक्षा





 मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है पर वरिष्ठ आलोचक अरुण होता का यह सुचिन्तित आलेख पाखी के दिसंबर -20 अंक में प्रकाशित हुआ है। 

आज से लगभग चार साल पहले रश्मि भारद्वाज का पहला कविता संग्रह ‘एक अतिरिक्त ‘अ’ ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत हुआ था। रश्मि का सद्यतम प्रकाशित दूसरा कविता संग्रह है ‘मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है’। इस संग्रह की कविताओं से गुजर कर सबसे पहले जो बिंदु हमारे सामने उभर कर आता है वह है कवयित्री का सोचने का नज़रिया।इस दृष्टिकोण के चलते कवयित्री अपने समकालीनों से भिन्न है।

इस संग्रह के केंद्र में स्त्री-जीवन के प्रेम, दुःख,मुक्ति और स्वाभिमान है। लेकिन, यह स्त्री  किसी भौगोलिक अवस्थान तक सीमित नहीं है। न ही उसका निजी दुःख अभिव्यक्त हुआ है। एक वृहत्तर संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में तमाम वर्गों की स्त्रियों के  दुःख को रूपायित किया गया है।भावों का ऐसा प्रभावी साधारणीकरण बहुत कम युवा कवियों से संभव हुआ है।  कविता संग्रह का दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु हैविस्थापन, सामाजिक, पर्यावरणीय  और वैश्विक चिंता का  प्रभावी ढंग से प्रस्तुतीकरण । कवयित्री की परिपक्व दृष्टि,  सधी हुई भाषा, जीवंत बिंब योजना  और सघन  अभिव्यक्ति के कारण ‘मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है’ का विशेष महत्व है।

रश्मि भारद्वाज के सृजन संसार में प्रवेश करने के पहले इस संग्रह की अंतिम कविता ( गद्य कविता) ‘इतवार का रंग आपकी आत्मा का रंग है ’ की अधोलिखित पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती हैं जिससे उनकी कवि दृष्टि को समझा जा सकता है—“कविता जीवन की अभिव्यक्ति है। जीवन अनंत अंधकार के बीच भी अपनी अस्मिता को बचाए रखने का संघर्ष है। इस जटिल और अराजक जीवन में कविता में हर पल आशा और रोशनी की बातें करना बेमानी ही नहीं समाज के साथ अन्याय भी है। कहने दीजिए कविता को जैसा है जीवन, कितनी धूप और छाँव है और कितना अंधेरा। जबरन की सकारात्मकता संशय में डालती है कविता के लिए। लेकिन जीवन लिखना नकारात्मक होना भी नहीं है।“(पृष्ठ, 114)कवयित्री अपने जीवनानुभवों को  कविता में  व्यक्त करती है तो कविता  विश्वसनीय होने के साथ-साथ ग्राह्य भी होती है। ऐसी कविता से गुजर कर पाठक उसमें  अपने जीवन के  अनुभवों को ढूँढ लेता है। इस प्रक्रिया में कविता केवल कवि की नहीं रह जाती है, बल्कि वह प्रत्येक सहृदय की हो जाती है।प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका ने रश्मि की पीड़ा के बारे में सही कहा है—‘’महादेवी वर्मा के बाद से स्त्री कविता की अब तक चार पीढ़ियाँ और तैयार हुईं। चौथी पीढ़ी की ऐसी विशिष्ट कवयित्री हैं रश्मि भारद्वाज, जिनकी पीड़ा बौद्ध भिक्षुणियों के चीवर की गंभीर लय में उनके पीछे धीरे-धीरे उड़ती जान पड़ती है।“ दुखी जीवन में सुख भूल से पल भर के लिए आता भी है तो दुःख के सागर में कहीं विलीन हो जाता है। ऐसी जीवनस्थिति का अंकन करते हुए कवयित्री लिखती हैं—

“सुख बायीं आँख में भूल से पड़ आया एक कंकड़ है

जो ढेर सारे पानी के साथ बह आएगा’’ (पृष्ठ-22)

कहना न होगा कि ऐसी कविता किसी कालखंड तक सीमित नहीं रह जाती बल्कि उसका अतिक्रमण करने में समर्थ  हो जाती है। मुझे पूरी उम्मीद ही नहीं भरोसा भी है कि इस संग्रह की कविताओं में यह सामर्थ्य मौजूद है।

जीवन में सुख-दुःख, अंधकार-प्रकाश,लाभ-हानि, विजय-पराजय, धूप-छाँव आदि का समान महत्व है। इस दृष्टि से दुःख, कष्ट, एकांत आदि का चित्रण नकारात्मक नहीं है। सकारात्मक है। जीवन की संपूर्णता के लिए यह आवश्यक भी है। इसके माध्यम से जीवन का लेखन होता है। जहां जीवन लिखा जा रहा हो वहाँ नकारात्मकता नहीं होती है। पुनः इस संग्रह में केवल दुःख नहीं है, प्रेम, उम्मीद, स्वप्न,संघर्ष, सौंदर्य और साहस भी अंकित हैं।

अक्सर दुःख की चर्चा के दौरान गौतम बुद्ध, मीराबाई, महादेवी वर्मा आदि का उल्लेख किया जाता है। यह अनुचित नहीं है। लेकिन रश्मि भारद्वाज की कविताओं में व्यंजित दुःख उनके समय का दुःख है जो स्वानुभूत होते हुए भी आमजन का अनुभव बन जाता है।यहाँ  तमाम जटिलताओं के चलते अपने पूर्ववर्ती कालखंड की तुलना में उसके स्वरूप में बड़ा बदलाव दिखाई देता है।यह रचनाकार अपनी ज़िम्मेदारियों को भली-भाँति समझती है। कवि कर्तव्य से परिचित है।ऐसी स्थिति में उसकी ईमानदार अभिव्यक्ति कविताओं में  आनेवाले समय में भी बचे रहने की पूरी शक्ति रहती है।

आलोच्य पुस्तक की कविताओं को पाँच उप-शीर्षकों के अंतर्गत स्थानित किया गया है। ये हैं – मैं दो शहरों में खोजती हूँ एक बीत गई उम्र, वे जन्म दे रही हैं हर क्षण एक नई पृथ्वी, जो अव्यक्त है वही सबसे सुंदर है, उन्हें आत्मा की रोशनाई से लिखा गया और इतवार का रंग आपकी आत्मा का रंग है। इनमें से किसी खंड की कविताओं से गुजरते हुए पाठक को ऐसा प्रतीत हो सकता है कि किसी विशिष्ट भावबोध की कविताएँ संकलित हैं। जैसे ‘मैं दो शहरों में खोजती हूँ एक बीत गई उम्र’ में शामिल कविताओं को कोई यात्रा की तो कोई स्मृति पर आधारित अथवा कोई विस्थापन या महानगरीय जीवन अथवा विडंबना की तो कोई स्त्री-जीवन के विविध पहलुओं पर लिखी गई कविता कह सकता है। लेकिन  ध्यान से पढ़ी जाएँ तो यहाँ कविताओं में उपर्युक्त तमाम भावों की संश्लिष्टता परिलक्षित होती है।संश्लिष्टता कविता का एक बड़ा गुण है। बिना लेखकीय परिपक्वता के यह संभव नहीं होता है। व्यापक जीवन-दृष्टि से कविता में वैविध्य समाहित होता है। रश्मि की कविताओं में ये गुण विद्यमान हैं। इसलिए उनका स्वर उनके समकालीनों से भिन्न है, अनन्य है। यह अनन्यता उनके कहने का तरीक़ा और भाषा का सलीक़ा के संदर्भ में भी देखी जा सकती है। कम से कम शब्दों का खर्च करना यानी मितव्ययिता उनके कवि-कर्म का मूल वैशिष्ट्य है।आज कविता में निबंध लिखा जा रहा है। अतिकथन हो रहा है। ऐसी स्थिति में रश्मि की कविताएँ न केवल आश्वस्त करती हैं बल्कि संवेदना और शिल्प के धरातल पर भी हिंदी कविता को आश्वस्त करती हैं। इनकी कविताओं का क्राफ़्ट सधा हुआ है।

संग्रह की कविताएँ चीखती, चिल्लाती या शोर नहीं मचाती हैं। न ही अपने स्वर को नारेबाज़ी में तब्दील करती हैं। इनमें तथाकथित क्रांतिकारिता का भी कोई दावा नहीं है। वाह्य आक्रामकता का भी कोई आग्रह नहीं। ये कविताएँ जीवन के अनुभवों को साझा करती हैं। चुपके से बड़ी सहजता और अत्यंत आत्मीयता के साथ पाठक के अंतःस्थल में प्रवेश करती हैं। उसे  उद्वेलित करती हैं। स्त्री जीवन एक यात्रा है दो शहरों यानी  मैके और ससुराल के बीच। दोनों में से एक ने उसे नहीं सहेजा तो दूसरे को स्त्री ने नहीं अपनाया। दोनों की दृष्टि में स्त्री अपराधिनी साबित होती है जबकि वस्तुस्थिति बिल्कुल विपरीत है—

“जबकि दोनों ही गुनहगार थे

अपनी नदियों, स्त्रियों और कवियों के

जिनकी भाषा से वे हमेशा अनजान रहे

जिनकी आँखों में कभी आठों पहर की नमी बसती  थी

अब वे चौमासे भी सूखी रह जाती हैं “ (पृष्ठ- 17)

जीवन ही एक यात्रा है। ‘यात्रा कथा’ के ‘पूर्वार्द्ध’ और ‘उत्तरार्द्ध’ तो होते ही हैं, लेकिन,’निरंतर’ का संयोजन यह स्पष्ट करता है कि जीवन में यात्रा की निरंतरता बनी हुई है। स्त्री की देह में कोख होती है लेकिन उसकी आत्मा की कोख को समझे बिना समझ अधूरी रहेगी। स्त्री देह की असंख्य खुरचनों और घावों को स्त्री की आत्मा ही शरण देती है। अत्यंत क्रूरतापूर्वक कुचले गए उसके शरीर का आश्रयस्थल बनती है  उसकी  आत्मा ही। यदि उस शरणदात्री आत्मा कराह उठे तो पुरुषसत्ता के सारे घमंड, अहंकार के दुर्गों का ढह जाना निश्चित है। इस भावबोध को पूरी काव्यात्मकता के साथ कवयित्री व्यक्त करती है—

“अब जब शेष हैं प्रेम की अस्थियाँ

उन्हें चुनता मेरा घायल शरीर

उसे शरण देने के लिए शेष रहती है

सिर्फ़ मेरी आत्मा की  कोख” (पृष्ठ-20)

ध्यान देना चाहिए कि ‘आत्मा की कोख’ बिल्कुल नवीन कल्पना है जिसे कवयित्री ने मूर्त रूप प्रदान किया है। सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि तमाम दुश्वारियों,यंत्रणाओं और विकराल स्थितियों में भी कवयित्री अपने आप को स्मरण कराना आवश्यक समझती है—‘’कविता ही है जिसने बचाए रखा है’’। केदारनाथ सिंह की पंक्ति स्मरण हो आती है ‘मोमबत्ती की रोशनी में सारी रात लिखता रहा कविता’’।  रचयिता का कविता के प्रति बेहद लगाव और अटूट आस्था इस संग्रह की तमाम कविताओं में शिद्दत के साथ दर्ज हुए हैं। यह कविता हमारे अंदर है जिसे समाप्त करने का षड्यंत्र वाह्य सत्ताएँ  अथवा स्वार्थी शक्तियाँ बार-बार रचती आ रही हैं।  इसे बचाए रखने का आशय मनुष्यता को बचाए रखना है। इसलिए कवयित्री के लिए यथार्थ से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है मनुष्य :

‘’सच को बचाने से कहीं बेहतर लगा मुझे

एक इनसान को बचा ले जाना’’  (पृष्ठ-102)

रश्मि की कविताएँ जीवन की सामान्य घटनाओं, विषयों और स्थितियों को असामान्य बना देती हैं। कवि-दृष्टि से संबद्ध होकर ही यह संभव हो पाता है। नींद की हालत को मृत्यु दर्शन के साथ जोड़कर संसार की तमाम साज़िशों, तिकडमों, अभावों से मुक्ति  और बेहतरीन कविता की कल्पना तो है लेकिन इसकी प्राप्ति के लिए एक शिशु जैसा  ‘एक साफ़ दिल’ की नितांत आवश्यकता है जिसमें अहं, दर्प और घमंड न हो।‘नींद एक मरहम है’ का निम्न दृश्य बिंब हमें उल्लसित करता है—

‘’नींद में मुस्कराता यह शिशु ईश्वर है

जो जब चाहे बेसुध सो सकता है।“ (पृष्ठ-26)

उल्लेख किया जा चुका है कि रश्मि भारद्वाज की कविताएँ स्त्री जीवन के विविध संदर्भों को रूपायित करती हैं। संघर्षशील स्त्री अर्थात् मनुष्य के पक्ष में खड़ी होने वाली कविताएँ हैं। उसकी अस्मिता, स्वत्व,स्वाभिमान और उसके सामर्थ्य और सीमाओं की प्रतिध्वनि सुनाने वाली कविताएँ हैं। ‘महानगर में औरत’, ‘रानू मंडल और दो पल की एक उम्र’,के साथ-साथ ‘वे जन्म दे रही हैं हर क्षण एक नयी पृथ्वी’ वाले खंड की कविताओं को एक साथ पढ़ा जाए तो समझा जा सकता है कि कवयित्री ने  विभिन्न वर्गों, नस्लों, धार्मिक संप्रदायों तथा अंतर्राष्ट्रीय अर्थात् वैश्विक संदर्भों में स्त्री जीवन की परत-दर-परत को कितनी निडर, गहरी अनुभूति  और संवेदनशील रूप में उकेरा है। स्त्री जीवन के दुःख, कष्ट, यंत्रणा और क्रंदन में से जीवन के सत्य और सौंदर्य का अन्वेषण करना कवयित्री की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है।स्त्रियों को  दुखों ने एक दूसरे में डुबोए रखा है  जहां रंग, वर्ण, जाति, आयु आदि की कोई दीवार नहीं थी। इन्हें एक दूसरे की आँखों की अव्यक्त पीड़ा समझ में आती हैं। इन्हें जानने और समझने के लिए आवश्यक है –

‘’उन्हें जानना हो तो डूबना रंगों की जटिलताओं में

वे मिलेंगी कविताओं की अव्यक्त पंक्तियों के बीच

एक दूसरे को प्रेम करते हुए

वे जन्म दे रही हैं हर क्षण

एक नई पृथ्वी’’ (पृष्ठ-42)

इस संग्रह की  कविताओं में वैविध्य के साथ अर्थ-व्यंजना, और संप्रेषण की क्षमता देखते ही बनती है।  यहाँ महानगरीय, शहरी, कस्बाई, ग्रामीण स्त्री अपनी शक्ति और सीमा के साथ जीवंत रूप में प्रकट होती है। अतः स्त्री चिंतन को ‘खाए-अघाए महानगर की स्त्री’ तक सीमित और ‘स्त्री ही स्त्री के कष्टों का कारण’ कहने वालों को यहाँ निराश होना पड़ेगा।

पुस्तक का शीर्षक है ‘मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है’। इसी नाम से एक कविता भी है। शीर्षक पर ध्यान केंद्रित करते ही पाठक को एक नयापन मिलता है और नये  भावबोध से गुजरना होता है। यहीं से उसे अनुमान होने लगता है कि इस संग्रह की कविताओं का स्वर औरों से भिन्न होगा। अनुमान सही साबित होता है। संग्रह की पहली कविता ‘मैं शेष रही’ से लेकर आख़री कविता ‘कुछ पन्ने ज़िंदगी’ तक केवल पठनीय नहीं बल्कि हर कविता पढ़ लेने के बाद कुछ देर रुकने, ठहरने और सोचने की माँग करती है। इसके बाद यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि कवयित्री की मान्यता अथवा अवधारणा प्रचलित सोच और विचार से नितांत भिन्न है। मसलन, शीर्षक कविता में माँ और बेटी के संबंध में  ‘शीतयुद्ध की अनिर्णीत चुप्पी रहा करती थी’ तथा अतीत और वर्तमान के बीच एक द्वंद्व रहता था। माँ के व्यवहार से बेटी को लगता था कि माँ तरह-तरह के बंधनों, पूर्वग्रहों और अतीतजीविता से घिरी हुई है। उस रिश्ते में बहुत बड़ा परिवर्तन आ जाता है जब वही बेटी मातृत्व की अधिकारिणी बन जाती है। बेटी की माँ में अपनी माँ के बंधन और पूर्वग्रह आरोपित हो जाते हैं। बेटी को जन्म देने के साथ-साथ वह माँ को भी जन्म देती है। इसी तरह ‘पक्षपाती है ईश्वर’ कविता में बारह वर्षीय बेटी को पहली बार मासिक से हुए डर, भय  और आशंका से मुक्त करने के लिए अथवा इससे लड़की का क्या भला होगा सवाल का जवाब देते हुए माँ कहती है –

“मैं सदियों से दुहराया जा रहा वही बहाना

हौले से बुदबुदाते हुए

कि यह स्त्री-देह का सौंदर्य है

यह उसे सृष्टि में विलक्षण बनाता है’’ (पृष्ठ-54)

इस अर्थ में रश्मि की कविताओं की नई अर्थवत्ता स्वयंसिद्ध है। 

रश्मि भारद्वाज रिश्ते की कवयित्री है। यह रिश्ता केवल माँ, पिता, बेटी, मित्र आदि तक सीमित नहीं है। व्यापक जन-जीवन के साथ प्रकृति, समाज और मानवेतर प्राणी तथा जड़ वस्तुओं  तक व्याप्त है। रिश्तों पर आधारित कविताओं से रचनाकार की संवेदना के व्यापक धरातल से परिचित हुआ जा सकता है। आज हमारा जीवन मशीनों में तब्दील होता जा रहा है। हम केवल भागते चले जा रहे हैं। लेकिन क़हाँ? यह मालूम नहीं है। ऐसी स्थिति में न केवल हमारे लिए बल्कि मानवता के लिए भी संबंधों की ऊष्मा का सर्वाधिक महत्व होता है। इस बिंदु के विस्तार से बचते हुए केवल ‘एक श्वान का संवाद’ की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जा रही है—

‘’मैं निःस्वार्थ स्नेह देता हूँ

और उतने ही प्रेम का आकांक्षी हूँ

मेरी सीमाएँ तय हैं पर मुझे इससे कोई शिकायत नहीं

मैंने इन सीमाओं में ही

अपने जीवन का सौंदर्य खोज लिया है

मैंने अपना एक संसार रच  लिया है।‘’ (पृष्ठ-103) पुरानी अटैची अथवा आलमारी तक के प्रति कवि की संवेदना महसूस की जा सकती है जब ये कबाड़ी वाले को सौंपे जाते हैं अथवा नष्ट किए जाते हैं तो हाथ काँप उठते हैं। अतः चेतन ही नहीं जड़ वस्तुओं तक संवेदना की व्याप्ति कवयित्री को नई पहचान देती है।

आलोच्य संग्रह में प्रेम और तदजन्य स्थितियों का मार्मिक अंकन हुआ है। प्रेम अव्यक्त होता है। इसलिए कवयित्री के अनुसार ‘जो अव्यक्त है वही सबसे सुंदर है’। उसकी प्रेमदृष्टि से परिचित होने के लिए कुछ काव्य-पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती हैं—

‘’समर्पित हो जाना देह और प्राण  का

यह साधना के फलीभूत होने के क्षण हैं

हर अहम, हर अहंकार की समिधा को

प्रेम की अग्नि में समर्पित कर

यह आत्मा के एकाकार होने का यज्ञ है।“(पृष्ठ,63-64)

 

इस प्रेम में देह बाधक नहीं, साधक बन कर आती है। इसलिए देह त्याज्य नहीं है। हाँ, यह साध्य भी नहीं है। रचनाकार की प्रेम कविताओं में उसकी निर्भीकता और गहरी अंतर्दृष्टि का प्रतिफलन है। अंग्रेज़ी साहित्य में रॉबर्ट लोवेल, सिल्विया प्लाथ, एनी सेक्सटन, एमिरी बराका, जॉस जॉनसन, हर्बर्ट हँक, जैक केरौच, गैरी स्नाइडर आदि की तरह रश्मि ने अपनी अभिव्यक्ति को बेहद प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। ‘सिल्विया प्लाथ के लिए’ कविता में कवयित्री ने  एक ओर टेड ह्यूज की प्रियतमा  सिल्विया के प्रति गहरी संवेदना है तो दूसरी ओर व्यवस्था के प्रति तीव्र आक्रोश व्यक्त हुआ है –

‘’वह रहती है

कवि के हृदय में

क्योंकि घरों में पत्नियों को रखा जाता है

वह इतिहास में दर्ज होती है

एक अभिशप्त प्रेम की तरह’’ (पृष्ठ -76)

 

स्त्री लेखन  को स्त्री-विमर्श, स्त्री-चिंता, स्त्री- अस्मिता, प्रेम, दुःख, स्त्री- स्वाभिमान,घर-परिवार, चूल्हा-चौका तक सीमित करना न केवल मर्दवादी सत्ता का परिचायक है बल्कि यह एक संकीर्ण मानसिकता का द्योतक है। ऐसा करना स्त्री लेखन  के साथ घोर अन्याय करना भी है। यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि स्त्री लेखन में स्त्री चिंता सर्वोत्कृष्ट रूप में अभिव्यक्त होती ही है। लेकिन, समय और समाज की प्रतिकूलताओं, विडंबनाओं, दुश्वारियों और हलचलों से पुरुष रचनाकार जितना उद्वेलित होता है, स्त्री रचनाकार को उससे कम उद्वेलन नहीं होता है। अतः स्वाभाविक है कि स्त्री लेखन में भी समय और समाज की चिंता और सरोकार की  समान रूप से अभिव्यक्ति रहती है। बस हमारे नज़रिए में बदलाव की आवश्यकता है।इस दृष्टि से रश्मि के लेखन के महत्व को अस्वीकारा नहीं जा सकता है।उनकी कविता ‘चंद्रिका स्थान’ में बूढ़ा बरगद के बहाने और ‘नदी होना एक यातना है’ में पर्यावरणीय चिंता उजागर होती है। ‘चंद्रिका स्थान’ एक बहुआयामी कविता है। इसमें लोक की चिंता भी उज्जीवित होती है।

 

सत्ता और बाज़ार का खेल भारत ही नहीं पूरी दुनिया में चल रहा है। इस खेल का आनंद पूँजी को मिल रहा है। मनुष्य के विवेक की हत्या लगातार हो रही है। झूठ को बार बार परोसा जा रहा है और उसे ही सत्य सिद्ध किया जा रहा है। विरोध और प्रतिरोध को पूरी तरह से समाप्त किया जा रहा है। ऐसी स्थिति का अंकन करने वाली पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती हैं—

‘’हमें याद आता है कि हमारे शब्दकोश में अब भी बची हुई है

नकार की भाषा

जबकि सत्ता, बाज़ार, धर्म और भाषा एकजुट होकर

हमें हर रोज़

हाँ की वर्तनी रटा रहे हैं’’ (पृष्ठ-104)

 

इसी तरह ‘वे कितने बचे हैं आदमी’ शीर्षक कविता में सत्तासीनों के वृथा घमंड, अहंकार आदि की केवल नोटिस नहीं ली गई है बल्कि उन्हें दया का पात्र बताया गया है—

‘’ताक़त और पैसे के खेल में नाचते ये लोग

हमारी नफ़रत नहीं दया के पात्र हैं’’ (पृष्ठ-99)

 

विस्थापन का दर्द हो अथवा समाज के बँटवारे से उत्पन्न अवसाद हो, रचनाकार ने अपने समय की तस्वीर को प्रस्तुत किया है। इससे उसकी कविता के आयतन का विस्तार हुआ है। पाठक से आत्मीय रिश्ता क़ायम करने में समर्थ इन कविताओं में संवेदना की गहन अनुभूति और कविताई का सुंदर तालमेल हुआ है। ये कविताएँ जीवन के विविध संदर्भों और परिप्रेक्ष्य को बड़ी सहजता के साथ अंकित करती हैं। ‘सबसे सुंदर कविताएँ चाहती हैं जीवन के लिए क्रूर बनें।‘ इस संग्रह से यह स्पष्ट होता है।  रश्मि भारद्वाज की समाज चिंता के केंद्र में मनुष्य और मनुष्यता है। इससे परिचित करानेवाली कुछ पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं—

एक भयानक समय जहां मनुष्यता की कोई क़दर नहीं थी, लिखती हुई एक कलम ही दूसरे को ध्वस्त कर अपना सृजन अमर कर लेना चाहती थी। जय जयकार थे लेकिन असंभव या असली और नक़ली प्रशंसा में फ़र्क़ कर पाना। लिखने वाले हिंदू, मुस्लिम, सवर्ण, दलित, स्त्री, पुरुष सब थे, मनुष्य के सिवा। उनकी कलम को जानने के पहले उनकी पहचान तय करना ज़रूरी था।‘’ (पृष्ठ-119)

 

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निश्चित रूप से  कहा जा सकता है कि इधर प्रकाशित कविता-संग्रहों में से ‘मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है’ हिंदी की एक प्रतिनिधि काव्य-कृति है।

 

पुस्तक परिचय :

मैंने अपनी माँ को जन्म दिया है— (कविता संग्रह)--रश्मि भारद्वाज,

प्रकाशक- सेतु प्रकाशन प्रा लि, 305 प्रियदर्शिनी अपार्टमेंट, पटपड़गंज, दिल्ली-110092,

पृष्ठ-119, मूल्य: 130 रुपए (अजिल्द)

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